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Showing posts from June, 2014

हिन्दी-विमर्श: गृह मन्त्रालय द्वारा हिन्दी-प्रोत्साहन पर विशेष

गृह मन्त्रालय द्वारा हिन्दी को प्रोत्साहित किया जाना बहुत ही स्वागत योग्य कदम है। यदि इसका सही क्रियान्वयन होता है तो न केवल हिन्दी का आत्मविश्वास बढ़ेगा अपितु समस्त भारतीय भाषाओं की चमक वापस आयेगी। अंग्रेजी जैसी अ-बौद्धिक भाषा भारत की समस्त भाषाओं पर ग्रहण बनकर व्याप्त हो गयी है, जिससे न केवल इस देश की संस्कृति प्रभावित हो रही है अपितु साहित्य भी सिकुड़ रहा है। आज स्थिति यह हो गयी है कि बहुत से ऐसे पढ़े-लिखे लोग हैं जिनको अपनी भाषा में अपनी भावनाओं को ठीक से व्यक्त कर पाने में समस्या का अनुभव होता है। अंग्रेजी को अ-बौद्धिक भाषा कहना बहुत ही उपयुक्त है क्योंकि यदि इसके साहित्य की आधारशिला देखी जाये तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि किस तरह ग्रीक और लैटिन के खण्डहरों पर उगी हुयी काई है यह भाषा? ये अम्ग्रेज लोग बड़े ही गर्व से इलियड, ओडिसी, इनीद को अपने महाकाव्यों में सम्मिलित करते हैं। बहुत ही घमण्ड के साथ प्लेटो, अरस्तू को उद्धृत करते हैं। इसके साथ ही इनका इतिहास ग्रीक को कुचलने, लैटिन को फूँकने में संलग्न रहा है। दूसरी भाषा का अस्तित्त्व समाप्त कर उसके साहित्य सम्पदा पर आधिपत्य कर ये लोग राजा ब

डॉ. हेडगेवार एवं भारतीय राष्ट्रवाद

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक पूज्य डॉ. हेडगेवार जी की पुण्यतिथि के अवसर पर भारत नीति प्रतिष्ठान द्वारा "डॉ. हेडगेवार एवं भारतीय राष्ट्रवाद" विषय पर व्याख्यान का आयोजन हुआ। जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में डॉ. कृष्णगोपाल जी, सरकार्यवाह (राष्टीय स्वयंसेवक संघ) का उद्बोधन सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रो. कपिल कपूर जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की एवम् डॉ. अवनिजेश अवस्थी जी ने कार्यक्रम का विद्वत्तापूर्ण, सुव्यवस्थित एवं सफल सञ्चालन किया। डॉ. कृष्णगोपाल जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि "भारत का प्रत्येक व्यक्ति स्वीकार करता है कि पूरा समाज एक है। यहाँ कोई भी प्रार्थना ऐसी नहीम् है जिसमें सबके कल्याण की बात न करके एक व्यक्ति के कल्याण की बात की गयी हो। इस देश का मौलिक सिद्धान्त है "सर्वे भवन्तु सुखिनः", "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" । इस सिद्धान्त के सर्वजनसमन्वय में एकात्मबोध है। केवल अपने लिये चिन्तन करने वाला अभारतीय है। पूर्वोत्तर की २२२ जनजातियों में किसी ने कभी भी एक -दूसरे पर अतिक्रमण नहीं किया, न ही दूसरे की पूजा-पद्धति और मान्यताओं क

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, हिन्दी के एक आधार स्तम्भ के रूप में प्रसिद्ध हैं। ये सेठ  अमीचन्द के वंशज थे, जिन्होंने सिराजुद्दौला और क्लाइव के मध्य समझौता  करवाया था। अपने धन के विषय में इनका कहना था कि " जिस धन ने हमारे पुरखों  को नष्ट किया उसको हम नष्ट करेंगे।" ये व्यक्ति नहीं वर्न् संस्था थे।  इअन्के सान्निध्य में हिन्दी के अनेक मूर्धन्य विद्वानों का जन्म हुआ। आज भारतेन्दु जी के जीवन का एक बहुत ही मार्मिक प्रसंग अचानक याद आ गया।  रामनगर (वाराणसी) के राजा इनके समवय थे और इनके परम् मित्र हुआ करते थे।  किसी कारणवश भारतेन्दु जी और राजा रामनगर में मनमुटाव हो गया था। भारतेन्दु  जी अस्वस्थ थे और शैय्या पर लेटे हुये थे। ऐसी अवस्था में उन्होंने सुन्दर  अन्योक्ति का सहारा लेकर गोपिकाओं के विरह-वर्णन द्वारा अपने मित्र को  अपने मन की व्यथा बतायी। राजा रामनगर को उन्होंने पत्र में लिखा- आजु लौं जौ न मिले तौ कहा हम तो तुमरे सब भाँति कहावैं। मेरौ उराहनौ है कछु नाहिं सबै फल आपने भाग को पावैं। जो हरिचन्द भई सो भई अब प्राण चले चँहैं तासो सुनावैं। प्यारो जु है जग की