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Showing posts from February, 2014

मृगमरीचिका में खोया है वसन्त

वसन्त ऋतु आयी । वसन्तपञ्चमी का उत्सव भी धूमधाम से सम्पन्न हुआ । पीले वस्त्रों ने पीले पुष्पों की रिक्तता के अनुभव को कुछ कम करने का प्रयास किया । साहित्यजगत् से लेकर सामान्य जगत् तक पराग, मकरन्द, किंशुक, सुगन्ध, पुष्प, कोपल, पल्लव, किंजल्क आदि अनेक वासन्ती शब्द सुनायी देने लगे । शब्दों में, कपड़ों में, चित्रों में एक दिन के लिये वसन्त का आभास होंने लगा । इस आभास से मन भी वासन्ती अभा में आभासित हो चला । पर बिना पुष्प देखे, पराग के स्पर्श से आती हुयी वायुपुञ्जों की सुगन्धि का अनुभव किये भला मन कैसे वसन्ती हो सकता है । पत्रा में वसन्त आ जाने से तिथि-परिवर्तन होते ही उत्सव तो प्रारम्भ हो जाता है, पर मानस की वास्तविक उत्सवधर्मिता तो प्रकृति के उत्सव एवं आह्लाद से नियन्त्रित होती है । प्रकृति का आह्लाद ही हृदय एवं मन को उल्लसित कर सकता है । कृत्रिम उल्लास तो चन्द क्षणों का अतिथि होता है, जो उसका आतिथ्य स्वीकार करते ही अपनी आगे की यात्रा हेतु प्रस्थान करता है । प्रकृति के अभाव में कृत्रिमता कबतक वास्तविक आनन्दानुभूति का अभिनय कर सकती है । एक आदर्श अभिनेत्री की भाँति कृत्रिमता अपना लावण्य दिख