सुकमा में नक्सली आतंकवादियों द्वारा ग्रामीणों की ओट लेकर सीआरपीएफ के जवानों की हत्या बहुत ही कायरतापूर्ण कदम है। नक्सल आन्दोलन सदा से ही हिंसक और कायरतापूर्ण रहा है। कभी भी नक्सलियों ने एक सृजन नहीं किया, बस उजाड़ा है घरों, खेतों, सड़कों, पगड़न्डियों, विद्यालयों, बहनों की माँगों और माताओं की गोद को। भारत में नक्सल आतंकवाद जिस विचारधारा की कोख से पैदा हुआ, वह विचारधारा वस्तुतः शब्दों में जितनी लुभावनी और सुन्दर है, यथार्थ के धरातल पर उतनी की विकृत, हिंसक, बर्बर, भयानक, रक्तरंजित और अमानवीय है। हत्या, लूट, आतंक आदि उसके सहज अस्त्र हैं। वामपन्थ के इतिहास पर यदि हम दृष्टिपाअत करें तो स्तालिन, माओ, पॉल पोट से लेकर भारत के सामयवादी नम्बूदरीपाद, नायर, ज्योति बसु, बुद्धदेव, मानिक सरकार तक सभी ने किसी न किसी रूप में आतंक, हिंसा और भय का सहारा लिया है। साम्यवादी आतंकवाद का ही नाम नक्सलवाद है। साम्यवाअदियों ने स्वयं शक्ति अर्जित करने और अपने शक्ति को बनाये रखने के लिये vampire की तरह गरीब, शोषित, पीड़ित, भोलीभाली जनता का रक्त चूसा है और जीवन प्राप्त किया है।
नक्सली आतंक के मास्टरमाइंड चारू मजूमदार ने कहा था कि "जो पारम्परिक शत्रु के रक्त में अपना हाथ नहीं डुबाता, वह क्रान्तिकारी नहीं है।" इन नक्सलियों की भारतदेश से पारम्परिक शत्रुता है, क्योंकि ये अपने आकाओं द्वारा पाले-पोसे और भारत में रोपे गये विष हैं। आज सरकार को इस बात को समझना होगा और इनके साथ कठोरता से पेश आना होगा। ये नक्सल-आतंकवादी न क्षमा के पात्र हैं न दया के अपितु ये भोलेभाली वनवासी जनता के खून से जमीन को रंगते हुये अपना उल्लू सीधा करने वाले राष्ट्रद्रोही भेड़िये हैं, जो किसी सहानुभूति के हकदार नहीं।
सरकार को इन नक्सल-आतंकवादियों के आतंक को समाप्त करने हेतु इनके उजले मुखौटों, देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में छिपे इनके मास्टरमाइंडों तथा तथाकथित मानवाधिकारवादियों, जिनकी आँखें केवल इन्हीं के लिये नम होती हैं, पर नकेल कसने की जरूरत है। इस नक्सल-आतंकी विषबेलि की एक अदृश्य जड़ नगरों में आसन जमाये है, वहाँ उसे खोज-खोजकर उबलते पानी से सींचने की जरूरत है।
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