भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, हिन्दी के एक आधार स्तम्भ के रूप में प्रसिद्ध हैं। ये सेठ
अमीचन्द के वंशज थे, जिन्होंने सिराजुद्दौला और क्लाइव के मध्य समझौता
करवाया था। अपने धन के विषय में इनका कहना था कि " जिस धन ने हमारे पुरखों
को नष्ट किया उसको हम नष्ट करेंगे।" ये व्यक्ति नहीं वर्न् संस्था थे।
इअन्के सान्निध्य में हिन्दी के अनेक मूर्धन्य विद्वानों का जन्म हुआ।
आज भारतेन्दु जी के जीवन का एक बहुत ही मार्मिक प्रसंग अचानक याद आ गया।
रामनगर (वाराणसी) के राजा इनके समवय थे और इनके परम् मित्र हुआ करते थे।
किसी कारणवश भारतेन्दु जी और राजा रामनगर में मनमुटाव हो गया था। भारतेन्दु
जी अस्वस्थ थे और शैय्या पर लेटे हुये थे। ऐसी अवस्था में उन्होंने सुन्दर
अन्योक्ति का सहारा लेकर गोपिकाओं के विरह-वर्णन द्वारा अपने मित्र को
अपने मन की व्यथा बतायी। राजा रामनगर को उन्होंने पत्र में लिखा-
आजु लौं जौ न मिले तौ कहा हम तो तुमरे सब भाँति कहावैं।
मेरौ उराहनौ है कछु नाहिं सबै फल आपने भाग को पावैं।
जो हरिचन्द भई सो भई अब प्राण चले चँहैं तासो सुनावैं।
प्यारो जु है जग की यह रीति विदा के समय सब कण्ठ लगावैं॥
कितनी गहन भावाभियंजना है। गोपिकाये कृष्ण से कहती हैं कि अब प्राण-पखेरु
उड़ने वाले हैं, अब तो आकर अन्तिम समय भेंट कर लो। वैसे भी हम तो सभी प्रकार
से तुम्हारे ही हैं । हमें कोई उलाहना नहीं देना है, सभी को उसके भाग का
फल मिलता है।
राजा रामनगर को यह पत्र भारतेन्दु जी ने तब लिखा जब वे गम्भीर रूप से
अस्वस्थ थे और अन्तिम दिन निकट था। कितना मार्मिक प्रसंग है। जब यह पत्र
राजा को मिला तो वे भारतेन्दु जी से मिलने आये। उनकी दवा भी करवायी ।
परन्तु राजयक्ष्मा से पीड़ित होंने की कारण भारतेन्दु जी ने इस संसार से
विदा ले ली।
यह पत्र भारतेन्दु जी के हृदय का एक करुण-दर्पण है। जो सभी के हृदय में
समान संवेदना जागृत उत्पन्न करता है।
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