Skip to main content

Posts

Showing posts from August, 2008

प्रेम

भारतीय संस्कृति में प्रेम के अनेक रूप हैं-वात्सल्य,स्नेह,अनुराग,रति,भक्ति,श्रद्धा आदि। परन्तु वर्तमान समय में प्रेम मात्र एक ही अर्थ में रूढ हो गया है, वो है प्यार जिसको अंग्रेज़ी मे "LOVE" कहते हैं। प्रथमतः प्रेम शब्द कहने पर लोगो के मस्तिष्क में इसी "LOVE" का दृश्य कौंधता है। प्रत्येक शब्द की अपनी संस्कृति होती है । उसके जन्मस्थान की संस्कृति, जहाँ पर उस शब्द का प्रथमतः प्रयोग हुआ। अतः प्रेम और "LOVE" को परस्पर पर्यायवाची मानने की हमारी प्रवृत्ति ने प्रेम शब्द से उसकी पवित्रता छीन ली है। परिणामतः प्रेम शब्द कहने से हमारे मस्तिष्क में अब वह पावन भाव नही आता जो हमें मीरा,सूर, कबीर,तुलसी, जायसी, घनानन्द, बोधा, मतिराम, ताज, रसखान,देव और बिहारी प्रभृत हिन्दी कवियों तथा कालिदास जैसे संस्कृत कवियो की रचनाओं में देखने को मिलता है। आज हम विस्मृत कर चुके हैं कि इस"LOVE" के अतिरिक्त भी प्रेम का कोई स्वरूप होता है। आज का "प्रेम कागज़ी फूलों के गुलदस्तों" में उलझकर अपनी वास्तविक सुगन्ध खो बैठा है। आज हम अपने शाश्वत, सनातन प्रेम के उस स्वरूप को व

शलभ

शलभ! तुम जल गये जलकर मर गये लेकिन तुम रोये नहीं इस नन्दनवन में खोये नहीं क्या तुम्हारे जीवन में लुभावने अवसर नही आये ? क्या तुमको कभी हीरक चकाचौंध नही भायी ? बोलो बोलते क्यों नहीं? मौन क्यों हो मुनियों की तरह कहीं तुम्हारा ये मौन स्वीकरण तो नही ? या तुम इसे तुच्छ स्थापनीय कोटि का प्रश्न समझकर गौतम बुद्ध की तरह अनुत्तरित रखना चाहते हो । सच-सच बताना शलभ मौन से काम नही चलेगा ये गौतम बुद्ध का समाज नही है विज्ञान की विजय है आज बता दो अपने अपरिग्रह का कारण नही नार्को टेस्ट से गुजरना पडेगा यदि नही बताते तो जाओ शलभ आज तुम्हें हम छोडते हैं हमें तुम्हारी मंशा पता चल गयी है कि तुम अखबारों, पत्रिकाओं का हज़ारों पन्ना अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से रंगाये बिना अपना राज़ नही खोलोगे अभी राज़ खोल देने से कितने लोग जानेगे भला? यहां किसी को तब तक नही जाना जाता है जब तक वह हज़ारों वृक्षों की जान लेकर ’पापुलर’ न हो जाय इस बात को शायद तुम अच्छी तरह जानते हो इसीलिये प्रतीक्षा कर रहे हो मधुमास की कि जब वह आयेगा तब तुम भी अपनी "पंचम" तान छोडकर दूसरों के मल्हार को मात दे दोगे खैर ठीक है अवश्य मिलेगा तुमको